Monday, June 27, 2016

रामायण हमें क्या सिखाती है ?

                                     

                                 
                                      रामायण  हमें क्या सिखाती है ? 


रामयण। बचपन मे t v पर देखा  करते थे ,जब से बड़े हुए तो  पढ़ते,   सुनते आए है,  रामकथा करवाते हैं और अब  hot star  पर सिया के राम देख रहे हैं । इनसे सीखा क्या ? रामायण पौराणिक ग्रंथो मे सबसे ज्यादा पढे जाने वाला ग्रन्थ  है । ये सिर्फ एक धार्मिक शास्त्र नही है।  ये हमे हर परिस्थति से उभार सकती है हमारी हर परेशानी व दुविधा का समाधान करती है । संतो की पहंचान, भक्ति के प्रकार, कौन सी गलत आदतें हमे लाइफ मे नुकसान पहुँचाती हैं, किन लोगो से हमे बचना चाहिए, हमारे रिस्ते कैसे होने चाहिए,  कहा हमे सभलकर चलना जरूरी है, क्या असंभव  है,  पूण्य कौन से हैं, और पाप क्या है, मोह में आशक्त ना हो,भावना में बहकर वादा ना करें, ये सब सीखाती है  रामायण। आए जानते  है कैसे  -  

१ रिस्ते  कैसे निभाना  है:- मानव जीवन कैसा होना चाहिए क्या आदर्श होना चाहिए किन परिस्थतियों में कैसा व्यवहार करें । ये सब सिखाती है इन्हे सीखकर हम अपने जीवन को बेहतर बना सकते हैं ।

१  दशरथ बाल सफेद  होने  पर राम को राजतिलक करने की घोसना करते है । ये हमे सिखाती है कि जब बच्चे बड़े हो जाए तो उनपर जिम्मेदारी सोप देनी चाहिए । कई लोग बच्चों को जीते जी उनकी जिम्मेदारी नहीं सौपते ।

२ राजा बनने जा रहे राम ने सहर्ष वन जाना स्वीकार किया । ये हमे सीखाता है की जीवन मे जो भी मिले उसे नियति का निर्णय मानकर स्वीकार कर सहर्ष स्वीकार कर  लेना चाहिए । 

 ३  सीता और राम का वन मे संतुष्ट रहना सीखता है कि -जो  व्यक्ति जीवन की किसी भी प्रस्थति मे संतुष्ट रहता है वह कठिन से सघर्ष को जीत सकता है । 

४  लक्ष्मण का किरदार सिखाता है कि - श्रेष्ठ पुरुष कठिन परिस्थतियों का सामना करते हुए भी अपने कर्तव्य का पालन करना नहीं भूलता । 

३  सीता  और लक्ष्मण जब राम वन में गए तो साथ गए । जो की जरूरी नही था । इससे हमे सीख मिलती है कि किसी की प्रस्थति बदलने से हमारी निष्ठा नहीं बदलनी चाहिए । निष्ठा और प्रेम से ही इंसान ऊचा उठता है । 
४ भरत के चरित्र से हमे सीख मिलती है कि जैसे भरत ने निष्कंटक राज मिलने पर भी उसे स्वीकार नहीं किया , राम की चरण पादुका रख कर एक सेवक की तरह सेवा की । उसी तरह हमे भी उसी चीज पर अधिकार जमाना चाहिए जो नैतिक रूप से हमारी  है ।  

५ दशरथ का कैकेयी को तीन वचन देने और रावण को अपनी बहन को ये वचन देना की जो भी पुरुष  तुम्हें पसंद आएगा उसे तेरे चरणों का दस बना दुगा इससे ये सिख मिलती है कि - भावुकता में कभी वचन ना दें । 

२ दोस्ती कैसी होनी चाहिए,  :- अपने पर्वत के समान दुख को धूल के समान समझना चाहिए और मित्र के धूल के समान दुःख को सुमेरु के समान समझना चाहिए। मित्र का धर्म है की वह मित्र को बुरे मार्ग से रोक कर अच्छे मार्ग पर चलाए, उसके गुण प्रकट करे और अवगुणो को छिपावे । लेनदेन में शंका ना करें, अपने बल के अनुसार हित  करें । और विपत्ति के समय १०० गुणा स्नेह करें । राम ने सुग्रीव से मित्रता की उसका राज्य और पत्नी दिलवाई । मित्र ऐसे  होने  चाहिए जो आपकी परेशानी और दुःख को समझ सके । 


कैसे लोगो से बचें :-
 १   मुर्ख  सेवक, कंजूस राजा, कुलटा स्त्री और कपटी मित्र ये चारो सुल के समान हैं ( अर्थात दुख देने वाले हैं )  

 २  मुर्ख ( विवेक शून्य ) धन के बिना व्याकुल होता है । 

३  दुष्ट लोगो को दूसरों का धन देखकर दुःख होता है । 

४  नीच का झुकना भी अत्यन्त दुःख दाई होता है जैसे अंकुश ,धनुष ,सांप और बिल्ली का झुकना । 

५  दुष्ट की मीठी वाणी  भी भय देने वाली होती है जैसे बिना ऋतु के फल ।  

६  शस्त्र धारी, मर्मी ( भेद जानने वाला ) समर्थ स्वामी ,मुर्ख धनवान ,वैध ,भाट रसोईया ,इन नौ से बैर करने में भलाई नही  है ।  

७  कामी पुरुष पतगे की तरह है और युवा स्त्री का शरीर उसके लिए दीपक की लो की तरह है।  
८  दुष्ट की प्रति स्थिर  नहीं रहती थोड़ा से धन से दुष्ट इतरा जाते हैं ।  और क्रोध का आवेश होने पर धर्म का ज्ञान नहीं रह जाता । 

९  कुसंग से ज्ञान नष्ट हो जाता है । 

१०  कुमार्ग पर पैर रखते ही शरीर में तेज तथा बुद्धि एव बल का लेस नही रह जाता ।
 ११  शत्रु ,रोग अग्नि पाप ,स्वामी ,और सर्प को छोटा नहीं समझना चाहिए 


 ११  न किसी से बैर करें ,न लड़ाई झगड़ा करें न आशा रखें । मान ही ,पाप  हीन और क्रोध हीन व सब कुतर्को से दुर रहें ।  
   

४ शत्रु ,रोग अग्नि पाप ,स्वामी ,और सर्प को छोटा नहीं समझना चाहिए । 
21 जो लोग मित्र के दुख से दुखी नहीं होते ऐसे लोग को देखने मे भी पाप लगता है ।

गलत आदतें जो हमे कामयाब होने से रोकती हैं  :-

१ नीति के बिना राज्य, और धर्म के बिना धन प्राप्त करन से ,भगवान को समर्पण किये बिना उत्तम कर्म करने से ,और विवेक उतपन किये बिना विधा पढ ने से परिणाम मे श्रम ही हाथ लगता है । 

२ विषयों के संग से सन्यासी, बुरी सलाह से राजा, मान से ज्ञान ,मदिरापान से लज्जा ,नम्रता के बिना प्रीति , और अहंकार से गुणवान शीघ्र नष्ट हो जाते है । 
३  नीच मनुष्य जिससे बड़ाई पाता है ,वह सबसे पहले उसी को मारकर उसी का नाश करता है । आग से  उतपन हुआ धुंआ मेघ की पदवी पाकर उसी अग्नि को बुझा देता है ।


 ४ धूल रास्ते में निरादर से पड़ी रहती है और सदा राह पर चलने वालो की लातो की मार खाती है । पर जब पवन उसे उडाता है तो वह सबसे पहले उसी को भर देती है । इसलिए बुद्धिमान लोग नीच का संग नहीं करता । 

५ दुष्ट लोगो से  ना कलह अच्छी और ना प्रेम । उससे सदा उदासीन ही रहना चाहिए । दुष्ट को कुत्ते की तरह दूर से ही त्याग देना चाहिए ।

हर कदम सभल कर  चले :- इस संसार में ऐसा कौन ज्ञानी है, तपस्वी ,शूरवीर कवि विद्धवान और गुणों का धाम है जिसकी लोभ ने मिटटी पलीत ना की हो ?  लक्ष्मी  के मद ने किसको टेढ़ा और प्रभुता ने किसको बहरा नहीं कर  दिया ? ऐसा कौन है ,जिसे मृग नयनी ( युवती  स्त्री ) के  नेत्र बाण न लगे हो ?   (रज तम आदि) गुणों का सन्निपात किसे नहीं हुआ ? ऐसा कोई नहीं है जिसे मान और मद ने अछूता छोड़ा हो । यौवन के ज्वर ने किसे आपे  से बाहर नही किया ? ममता ने किसके यश का  नाश नहीं किया ? शोक रूपी पवन ने किसे नहीं हिला दिया ? चिन्ता रूपी सांप ने किसे नही डंसा, जगत में ऐसा कौन है जिसे माया ना व्यापी हो ।  मनोरथ कीड़ा है शरीर लकड़ी है । ऐसा धैर्य वान कौन है जिसके शरीर में ये कीड़ा ना लगा हो ? पुत्र की  धन की लोकप्रतिष्ठा की इन तीन इच्छाओं ने किसकी बुद्धि को मलिन नहीं किया ( बिगाड़ नहीं दिया ) ? 

भक्ति कितने प्रकार की होती है :-१  पहली भक्ति है संतो का संग ( अर्थात सच का संग ) २ भक्ति सतसंग से प्रेम, ३ भक्ति अभिमानरहित, ४  भक्ति कपट छोड़कर पभु गुण गान ,५  भक्ति दृढ़ विश्वास ,६  इंद्रियो का निगृह ,७  भक्ति समभाव ८  भक्ति जो मिले उसी में संतोष । स्वप्न में भी पराये धन को देखना पाप है । ९  सरलता सब के साथ सबके साथ कपट रहित बर्ताव और किसी भी अवस्था में हर्ष और विषाद ना होना । 

११ ज्ञान क्या है ?:-  ज्ञान वह है जहां मान आदि एक भी ना हो । और समान रूप से ब्रह्म को देखता है सारी  सिद्धियों को और तीनो गुणों को  समान त्याग चूका हो । ( जिसमे मान दंभ हिंसा छमा रहित ,टेढ़ापन ,आचार्य सेवा का आभाव, अपवित्रता,अस्थिरता ,मन निगृह न होना ,इंद्रियों के विषय में आसक्ति, अहंकार, जन्म -मरन, जरा व्यधिमय जगत में सुख बुद्धि,स्त्री पुत्र घर आदी  मे आसक्ति तथा ममता इष्ट और अनिष्ट हर्ष शोक, भक्ति का आभाव एकांत में मन ना लगना ,विषयी मनुष्यो के संग में प्रेम ये अठारह ना हो वही ज्ञान कहलाता है ।    

ज्ञान पाने से इंद्रिया शिथिल हो कर विषयों की और जाना छोड़ देती है कथा के सार को ग्रहण करने से विवेक और बुद्धि तीव्र हो जाती है । दानव  जैसा व्यक्ति भी मानव बनकर मर्यादित जीवन जीते हुए अपने लक्ष्य को प्राप्त कर  सकता है । 

१२ संतो के लक्षण क्या हैं ?:- छः विकारों ( काम क्रोध लोभ मोह मतसर )जीते हुए पाप रहित कामना रहित निश्छल ( स्थिर बुद्धि सर्व त्यागी ) बाहर भीतर से पवित्र सुख के धाम असीम ज्ञान वान इच्छा रहित मिताहारी सत्य निष्ठा कवि विद्धवान योगी सावधान दुसरो को मान देने वाले अभिमान रहित धैर्यवान धर्म के ज्ञान और आचरण में अत्यन्त निपुण । गुणों के घर संसार के दुखो से रहित ना देह प्यारी ना घर से लगाव । अपने गुणों को सुनने मे सकुचाना दूसरों के गुण सुनकर हर्षित होना सरल स्वभाव सभी से प्रेम जप तप नियम व्रत दम संयम मे रत दया शमा मैत्री प्रभु चरणों में निष्कपट प्रेम वैराग्य विवेक विनय विज्ञानं और वेद पुराणों का यथार्थ ज्ञान ।  



  

जो असंभव है :- ३ सेवक सुख चाहे ,भिखरी सम्मान चाहे ,व्यसनी ( जिसे जुआ शराब आदि का व्यसन हो ) धन और व्यभिचारी शुभ गति चाहे ,लोभी यश चाहे अभिमानी अर्थ धर्म काम मोक्ष चाहे ,तो ये सब प्राणी आकाश को दुहकर दुध लेना चाहते है ( अर्थात असम्भव बात को संभव बनाना चाहते हैं।सबका हित चाहने वाला कभी दुखी नहीं हो सकता । जिसके पास पारश मणि है वह कभी दरिद्र नहीं हो सकता । दूसरों से द्रहो  रखनेवाला कभी निर्भय नहीं हो सकता और कामी कभी कलंक रहित नहीं रह सकता । बिना पुण्य के पवित्र यश  नही हो सकता और बिना पाप के कोई अपयश नहीं पा सकता।  


संत और असंत का मर्म और श्रुतियों में प्रसिद्ध सबसे महान पुण्य कौन  कौन से है और भयंकर पाप कौन से हैं ? 

मनुष्य शरीर के समान  कोई शरीर नहीं है। चर अचर सभी जीव उसकी याचना करते हैं। यह मनुष्य शरीर नरक स्वर्ग और मोक्ष की सीढ़ी है । तथा ज्ञान वैराग्य और भक्ति को देने वाला है ।  

जगत में दरिद्रता के समान दुःख नहीं है तथा संतो के मिलने के समान जगत में सुख नहीं है । संत दूसरों की भलाई के लिए दुःख सहते  हैं और अभागे असंत  दूसरों को दुःख पहुंचाने के लिए । दुष्ट बिना किसी स्वार्थ के सांप और चूहे की तरह अकारण ही दूसरों का अपकार करते हैं । वे पराई सम्पति को नष्ट करके  स्वय नष्ट हो जाते है जैसे खेती का नाश करके ओले नष्ट हो जाते हैं ।

क्या करें :- वह धन धन्य है जो दान देने मे व्यय होता है । वही बुद्धि धन्य है और परिपक्व है जो पूण्य में लगी हो वही घड़ी धन्य है जब सतसंग हो वही जन्म धन्य है जिसमे भक्ति हो । 

धन की तीन गतियाँ होती है - दान, भोग और नाश । दान उत्तम है ,भोग मध्यम है और नाश नीच गति है । जो पुरुष न देता है न भोगता है उसके धन  तीसरी गति होती है ।  


शील और गुण हीन  संत व ब्राह्मण भी  पूजनीय हैं । और गुणों से युक्त और ज्ञानमें निपुण शुद्र भी पूजनीय है ।   

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