Monday, October 17, 2016

फर्क सिर्फ सोच का है। मोटिवेशनल कहानी !!!



Image result for soch ka frkदोस्तों जब "श्री श्याम सेवा समिति" बनाई गई तो इसकी ऑग्नाइजर से एक सख्स ने कहा कि -

" इसका चार्ज आप मेरे रिलेटिव को दे दो "

ऑग्नाइजर ये बातें सुन ही रहा था कि एक अन्य सख्स आया और ऑग्नाइजर ने उसे इंचार्जर बना दिया। ये देखकर बोलने वाले सख्स का चहरा उतर गया। जब तक ऑग्नाइजर उस सख्स को अन्य को इंचार्जर बनाने के बारे में कुछ बताता, उससे पहले ही वो सख्स बिना कुछ बोले आगे चला गया। ऑग्नाइजर के मन में ये था कि ये तो सब अपने है मुझे समझते हैं जानते हैं । इस कार्य में जहा सबसे आगे आने का समय है वहां उसके रिलेटिव को खड़ा कर देगे ये सोचकर वह और कार्यो में लग गया


इधर उस सख्स ने अपने रिलेटिव को आगे ना देखकर ऑगनजर के बारे में लोगो को भडकाना शुरू किया । ऑग्नाइजर को तो ये समझ में ही नही आ रही थी कि जिन्हें वो सब से आगे रखना चाहता है वही गड़बड़ कर रहे हैं। उसके दोस्त ही उसकी इमेज बिगाड़ने के लिए ही अफवाह फैला रहे हैं। वह और लोगो को कसूरवार समझकर उन्हें इग्नोर करने लगा और सारा फोक्स अपने कार्य पर कर दिया । कार्य अच्छी तरह से सम्पन भी हुआ ।


इससे अपने रिलेटिव को आगे ना देखकर वो सख्स और उसके साथी तो थे ही खिलाप। और जो साथ में जुड़ने थे और इग्नोर करे जाने वाले लोग थे वो और खिलाप हो गए। और उस सख्स के साथ मिल गए जो अपने रिलेटिव को आगे रखना चाहता था। उन लोगो ने आपस में मिलकर एक अलग समिति बनाई और उस ऑग्नाइजर को ही समिति से अलग कर दिया। उस ऑग्नाइजर ने सबको एक करने की बहुत कोशिस की लेकिन उनका ईगो उसे एक्सप्ट नही कर पाया। इसलिए उन्होंने ऑग्नाइजर को अपने साथ नही रखा


अब जो नई समिति बनी उसमे और लोग जुड़े थे, उन लोगो ने भी उन्हें या उनके रिलेटिव को चार्ज नही सोपा । जो और लोग जुड़े थे उन्होंने उन्हें आगे कर दिया। इससे उनकी चार्ज की भूख तो शांत ही नही हुई और उन्होंने अब जो उनके साथ जुड़े थे उनके बीच में भी झगड़ा करवा दिया । लेकिन चार्ज फिर भी उन्हें नही मिला ।



अब वो दुबारा "श्री श्याम सेवा समिति" के ऑग्नाइजर के पास वापिस आ गए । लेकिन अब इतनी देर हो चुकी थी कि "श्री श्याम सेवा समिति " में और बहुत लोग जुड़ चुके थे । और पहले भी ये लोग धोखा दे चुके हैं अब "श्री श्याम सेवा समिति" का ऑग्नाइजर चाहकर भी उन्हें आगे नही कर सकता था ।

कई बार हम अधूरी बात सुनकर ही निष्कर्ष पर पहुंच जाते हैं। जिसकी वजह से जिदगी में बहुत बड़ा तूफान आ जाता है और पूरी जिदगी उसका खामयाजा भरते हैं। किसी ने सही कहा है -

" नजर का आपरेशन तो संभव है लेकिन नजरिये का नही "


अतुल राठौर ने अपनी blogig में सही लिखा है कि -

" फर्क सिर्फ सोच का है -


" वरना वही सीढ़ी ऊपर भी जाती है और निचे भी आती हैं "








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